कॉमरेड गुमुड़ावेल्ली रेणुका का जीवन एक खुली किताब की तरहहै. तीन दशकों की उनकी क्रांतिकारी यात्रा और क्रांतिकारी आंदोलन में योगदान को उनके जीवन से भी बड़ा कहा जा सकता है. उनका तीस साल का क्रांतिकारी संघर्ष उत्पीड़ित महिलाओं के लिए मुक्ति का संदेश है. कॉमरेड रेणुका एक अटल और समर्पित कम्युनिस्ट क्रांतिकारी थीं. वह एक दृढ़निश्चयी योद्धा थीं, जिन्होंने गुरिल्ला जीवन की कठिनाइयों, कष्टों और पीड़ाओं से कभी भी मुंह नहीं मोड़ा.
वह उत्पीड़ित जनता की एक क्रांतिकारी साहित्यिक सिपाही भी थीं. एक उत्कृष्ट क्रांतिकारी लेखिका, निबंधकार, समीक्षक और आलोचक के रूप में उन्होंने विभिन्न क्रांतिकारी पत्रिकाओं के संपादन का दायित्व भी निभाया. उन्होंने तेलुगु पाठकों के लिए प्रगतिशील हिंदी साहित्य की कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद भी किया. पितृसत्तात्मक समाज और पुरुष सत्ता के खिलाफ़ उन्होंने सजग और अथक संघर्ष किया.
कॉमरेड रेणुका ऐतिहासिक तेलंगाना सशस्त्र किसान संघर्ष की जन्मभूमि नलगोंडा और वारंगल जिलों के ग्रामीण अंचलों में एक लाल लौ की तरह प्रज्वलित हुईं, जहां उन्होंने क्रांति के पाठ उसी स्वाभाविकता से सीखे जैसे एक शिशु मां के स्तन से दूध पीता है. वह कड़वेंडी की धरती से थीं – वही कड़वेंडी जहां जनता ने 1940 के दशक में विसनूर के ज़मींदारों के खिलाफ़ बहादुरी से संघर्ष किया था और जहांपहले शहीद दोड्डी कोमारैया ने अपना खून बहाया था.
तबसे लेकर कड़वेंडी ने अनेक क्रांतिकारी पैदा किए हैं. इस गांव का नाम आते ही लोगों के जेहन में सबसे पहले दोड्डी कोमारैया का नाम आता है; फिर बाद की पीढ़ियों में पाइंड्ला वेंकटरमणा और एर्रमरेड्डी संतोष (महेश) का नाम लिया जाता है – और अब रेणुका का नाम भी इसी गौरवशाली परंपरा में जुड़ गया है, जिन्होंने अपनी अंतिम सांस तक इस विरासत को निभाया.
रेणुका का परिवार न केवल उन अनगिनत परिवारों में शामिल था जिन्होंने क्रांति का सपना देखा, बल्कि वह उन परिवारों में भी था जिन्होंने क्रांति के लिए अपनी प्यारी बेटी को कुर्बान कर दिया. रेणुका की शहादत ने कड़वेंडी को और भी अधिक लाल कर दिया. उनकी शवयात्रा न केवल कड़वेंडी गांव के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ेगी, बल्कि कॉमरेड संतोष की शहादत के बाद एक नया अध्याय भी जोड़ेगी. इस गांव के इतिहास में वह क्रांतिकारी पार्टी की पहली महिला नेता हैं जिन्होंने शहादत प्राप्त की.
31 मार्च, 2025 को छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले (इंद्रावती क्षेत्र) के बेलनार गांव में पुलिस द्वारा एक और फर्जी मुठभेड़ में कॉमरेड रेणुका की हत्या कर दी गई. उनके पार्थिव शरीर को उनके परिवारजनों और साथियों ने कड़वेंडी लाया. हम उन हज़ारों क्रांतिप्रेमियों को लाल सलाम करते हैं जिन्होंने 2 अप्रैल को उनकी अंतिम यात्रा में कंधा दिया; उन हज़ारों क्रांतिकारी समर्थकों, लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, महिला संगठनों की कार्यकर्ताओं और उन सभी सहयात्रियों को जिन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन में रेणुका के साथ सफर किया और उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए; पड़ोसी गांवों के उन लोगों को जिन्होंने गांव को लाल झंडों के सागर में बदल दिया; और उन सभी को जिन्होंने अपनी प्यारी बेटी के प्रति असीम स्नेह और क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति अटूट विश्वास के साथ उस जुलूस में भाग लिया.
इस पूरी शवयात्रा में – “ऑपरेशन कगार रोको”, “फर्जी मुठभेड़ें बंद करो”, “शहीदों को लाल सलाम”, “शहीदों के उच्च आदर्शों को आगे बढ़ाएं”, “एक योद्धा के गिरने से हज़ार योद्धा खड़े होंगे” जैसे नारों वाले लाल झंडों, प्लेकार्ड्स और बैनरों के साथ – ढोल की थाप, क्रांतिकारी गीतों और लहराते लाल झंडों के बीच प्रतिरोध की भावना हवा में घुल गई थी.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की केंद्रीय कमेटी ने अपने एक बयान में रेणुका की अंतिम यात्रा में शामिल सभी लोगों के सामूहिक दुःख को साझा किया. साथ ही, यह आशा भी व्यक्त की कि उनके माता-पिता, भाई-बहन, रिश्तेदारों और मित्रों को सांत्वना मिले. रेणुका की कमी को कभी पूरा नहीं किया जा सकता, लेकिन हमें विश्वास है कि वे उन सैकड़ों बेटियों-बेटों में रेणुका को देखेंगे जो क्रांति के पथ पर दृढ़ता से खड़े हैं, और वे क्रांतिकारी शिविर में बने रहकर उत्पीड़ित जनता के पक्ष में अपना सहयोग देते रहेंगे.
रेणुका की वीर मां यशोदम्मा द्वारा भारतीय संविधान को दी गई चुनौती हम सभी के लिए प्रेरणा बने – एक ऐसे समाज के लिए संघर्ष जारी रखने की जहांऐसी मौतों के लिए कोई जगह न हो. इसके लिए सभी को उठ खड़ा होना होगा और अडिग रहना होगा.
रेणुका ने कई उपनामों से लिखा. उनकी अधिकांश रचनाएं अरुणतारा, वीक्षणम और महिला मार्गम जैसी तेलुगु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं. दंडकारण्य में रहते हुए उन्होंने बी.डी. दमयंती और मिडको जैसे नामों से लिखा – अधिकांशतः स्वतंत्र रूप से और कुछ एक अन्य लेखक अमन के साथ मिलकर. हमें अफसोस है कि उनकी कई रचनाएं अभी हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं, और शत्रु के भीषण हमलों के कारण हम उन्हें तुरंत खोजकर संकलित नहीं कर पा रहे हैं. उनकी लंबी क्रांतिकारी यात्रा के विवरण में जाने से पहले, आइए उन क्रांतिकारी विचारों पर एक नज़र डालें जिन्हें उन्होंने अलग-अलग समय पर अपनी रचनाओं में व्यक्त किया.
“8 मार्च को याद करना कोई उत्सव या जश्न नहीं है. यह पीढ़ियों से चले आ रहे महिलाओं के संघर्ष को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता है. यह उस संघर्ष को आने वाली पीढ़ियों तक और भी प्रेरणादायक ढंग से पहुंचाने का अवसर है. शासक वर्ग, जो महिलाओं पर क्रूर हिंसा करके अपनी सत्ता बचाने की कोशिश करते हैं, वे कभी भी महिला सशक्तिकरण की बात करने के अधिकारी नहीं होंगे.8 मार्च उनका भंड़ाफोड करनेऔर उनके महिला-विरोधी मुखौटे को उतार फेंकने का सही अवसर है.”
(8 मार्च, 2012 को लिखा गया: “आइए, पूरे देश की उत्पीड़ित महिलाओं के साथ मिलकर महिलाओं पर हो रही राज्य-हिंसा के खिलाफ़ अपनी आवाज़ उठाएं.”)
“अगर यह युद्ध अभी और यहीं नहीं रोका गया – इस धरती पर जो प्राचीन मानव सभ्यताओं का घर है, जो एक महान संस्कृति और विद्रोही परंपरा का गढ़ है – अगर हम ज़ोरदार आवाज़ नहीं उठाएंगे, अगर हम पूरी ताकत से यह नहीं कहेंगे कि इस हमले को तुरंत रोका जाना चाहिए, तो हम अपने देश और इसकी प्राकृतिक संपदा को बचा नहीं पाएंगे. यह सिर्फ़ माड़ क्षेत्र के गुमनाम आदिवासियों के अस्तित्व का सवाल नहीं है; यह हमारे देश के भविष्य से जुड़ा प्रश्न है.”
(2012 में वीक्षणम पत्रिका के लिए चैते मड़ावी नाम से लिखे गए लेख से: ‘राज्य सशस्त्र बलों द्वारा माड़ क्षेत्र पर विनाशकारी हमला’)
“विश्वविद्यालय के छात्रावासों में बीफ़ शामिल करने की छात्रों की मांग वास्तव में बहुत मामूली है. लोगों का अपनी पसंद के भोजन के अधिकार की रक्षा करना और अपने खान-पान के तरीकों के लिए सम्मान की मांग करना स्वाभाविक है. यह स्वाभिमान का भी सवाल है. फिर भी, इस पर एक बड़ी लड़ाई छिड़ी हुई है. इस साधारण से मुद्दे पर एक बड़ा सांस्कृतिक संघर्ष ही छेड़ना पड़ रहा है… जिन क्षेत्रों में क्रांतिकारी आंदोलन सक्रिय है, वहां लोगों की खान-पान की आदतों की न केवल रक्षा की जा रही है, बल्कि उन्हें गर्व से अपनाया भी जा रहा है. यह आंदोलन उन लोगों का समर्थन करता है जो अपने अधिकारों के लिए खड़े होते हैं. इस तरह, यह उनके स्वाभिमान की रक्षा करता है. यह केवल हिंदुत्व की सांप्रदायिक सोच के खिलाफ़ संघर्ष करके और लोगों को शिक्षित करके ही संभव है.”
(2012में उस्मानिया यूनिवर्सिटी में अपने हॉस्टल मेन्यू में बीफ़को शामिल करने की मांग से संघर्षरत छात्रों के साथ एकजुटता में, मिडको नाम से लिखे गए लेख से: ‘क्रांतिकारी आंदोलन कैसे उत्पीड़ित लोगों कीखानपान की आदतों की रक्षा कर रहा है’)
“प्रशिक्षण के बहाने आई एक ब्रिगेड के आकार की भारतीय सेना की टुकड़ी अब माड़ क्षेत्र की सीमा पर तैनात की गई है.हालांकि वे प्रशिक्षण को बहाने के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि उन्हें देश की जनता के प्रतिरोध का डर है, यह समझना मुश्किल नहीं है कि सेना असल में जनता के खिलाफ़ युद्ध छेड़ने आई है… आज हमारे ‘स्वतंत्र’ भारत के शासक वर्ग अपनी सेना को देश के हृदयस्थल में रहने वाले सबसे गरीब लोगों के खिलाफ़ मोड़ रहे हैं, ताकि वे अपनी कॉर्पोरेट-परस्त, नवउदारवादी नीतियों को बिना किसी रोक-टोक के लागू कर सकें. यह सच हो सकता है कि किसी ज़माने में गोरे शासकों की सेना भूमकाल विद्रोह को कुचल पाई थी. लेकिन यह भी सच है कि इतिहास ने खुद दिखाया है कि इतिहास हमेशा एक जैसा नहीं दोहराया जाता.”
(2012 में बी.डी. दमयंती के नाम से, अमन के साथ सह-लिखित: ‘भूमकाल के रास्ते पर चलते बस्तरिया लोग’)
2005 से 2007 के बीच दंडकारण्य में केंद्र और राज्य सरकारों ने सेना के विशेषज्ञों और जन आंदोलनों को क्रूरतापूर्वक कुचलने वाले कुख्यात नेताओं के साथ मिलकर सलवा जुडूम (सामूहिक शिकार) के नाम पर खूनी आतंक फैलाया. इस हिंसक अभियान के दौरान, जिसे झूठे तौर पर एक शांतिपूर्ण आंदोलन बताया गया था, रेणुका ने सबसे गरीब और सबसे उत्पीड़ित लोगों पर हुए बर्बर हमलों, यातनाओं और अत्याचारों का विस्तृत दस्तावेजीकरण किया. उन्होंने अपनी इस रचना का शीर्षक दिया ‘पच्चानि बतुकुलापई निप्पई कुरुस्तुन्ना राज्यम’ (हरी-भरीज़िंदगी पर कहर बरबाताराज्य). उन्होंने खुद प्रभावित गांवों का दौरा करके और पीड़ितों से सीधी बातचीत करके यह काम किया.
उस खूनी अभियान का नेतृत्व कुख्यात आदिवासी ज़मींदार, अवसरवादी राजनेता और छत्तीसगढ़ सरकार के पूर्व उद्योग मंत्री महेंद्र कर्मा ने किया था – जो उत्पीड़क शासक वर्गों का भरोसेमंद सेनापति था. रेणुका की लेखनी, जो उनके प्रत्यक्ष अनुभवों और अवलोकनों पर आधारित थी, ने सलवा जुडूम के अत्याचारों का इतना विस्तृत वर्णन किया जैसा कि शायद ही किसी अन्य रचना में देखने को मिलता हो!
2012 में रेणुका की कलम से एक और महत्वपूर्ण रचना निकली – ‘विमुक्ति बटालो नारायणपटना’ (मुक्ति पथ पर नारायणपटना). यह संघर्ष गाथा ओडिशा के कोरापुट जिले के जंगलों से उठे जन आंदोलन का लिखित दस्तावेज है. आधुनिक संशोधनवादियों की खोखली राजनीति से मोहभंग हो चुके आदिवासी समुदायों ने अपनी बेड़ियां तोड़ डालीं और ‘ज़मीन जोतने वाले को’ के नारे के साथ अपने जुझारू संघर्षों के माध्यम से एक नई लहर पैदा की. यह पुस्तक उन उत्पीड़ित जनता के संघर्षों और बलिदानों का एक संक्षिप्त परिचय है, जिन्होंने सैकड़ों एकड़ कृषि भूमि को वीरतापूर्वक वापस छीना.
कॉमरेड रेणुका ने अनेक विधाओं में लेखन किया – लघुकथाएं, लेख, जन संघर्षों पर विश्लेषण, पुस्तक और फिल्म समीक्षाएं, विभिन्न अवसरों पर पर्चे, शहीदों के जीवन-वृत्तांत, आंदोलन के साथियों के जीवन प्रसंग और साक्षात्कार. उन्होंने बटालियन-1 के उन गुरिल्लाओं के अनुभवों को दर्ज करने का महत्वपूर्ण जिम्मा भी उठा लिया था, जो 2008 में उसके गठन के बाद से हुई विभिन्न लड़ाइयों में घायल हुए थे.हालांकि, दुश्मन के लगातार हमलों के कारण उन्हें क्षेत्रीय अध्ययन करने का समय नहीं मिल पाया. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उस गुरिल्ला यूनिट में शहीद हुए साथियों को छोड़कर, लगभग हर गुरिल्ला किसी न किसी युद्ध में घायल हुआ था.
उनके लेखन में क्रांतिकारी चेतना, वर्ग संघर्ष से तपे हुए शब्द, लोकतांत्रिक मूल्यों और समाजवादी आदर्शों में उनकी अटूट आस्था, और जनता की राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक समस्याओं को प्रतिबिंबित करने की उनकी प्रतिबद्धता – ये सभी भविष्य के शोधार्थियों के लिए अध्ययन की महत्वपूर्ण सामग्री हो सकते हैं और संभवतः एक शोध पुस्तक का आधार बन सकते हैं.
कॉमरेड गुमुड़ावेल्ली रेणुका (54) ने अपने जीवन के लगभग तीन दशक क्रांतिकारी आंदोलन में बिताए. उनका जन्म पुराने वारंगल जिले के कड़वेंडी गांव में हुआ था. उनकी मां कॉमरेड जयम्मा (यशोदम्मा) और पिता कॉमरेड गुमुड़ावेल्ली सोमैय्या थे. उनके तीन बच्चों में रेणुका दूसरे नंबर की थीं; उनका एक बड़ा भाई और एक छोटा भाई हैं. कॉमरेड सोमैय्या एक सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षक हैं. उनके माता-पिता प्रगतिशील सोच रखने वाले हैं, और शुरू से ही उनके बच्चों पर क्रांतिकारी आंदोलन का गहरा प्रभाव पड़ा.1940 के दशक के तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष के प्रभाव के अलावा, 1970 के दशक के उत्तरार्ध में वारंगल जिले में मजबूत होते क्रांतिकारी आंदोलन से भी कॉमरेड सोमैय्या प्रभावित थे. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि, ज़मींदार वर्गों को छोड़कर, उस गांव में शायद ही कोई परिवार होगा जो क्रांतिकारी आंदोलन से अछूता रहा हो – और कॉमरेड सोमैय्या का परिवार भी उनमें से एक था.
कॉमरेड रेणुका ने सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई अपने ही गांव कड़वेंडी में की. उन्होंने नलगोंडा जिले के मोतकूर से दसवीं कक्षा पूरी की और फिर जनगांव से इंटरमीडिएट की शिक्षा प्राप्त की. इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद उनके माता-पिता ने उनकी शादी तय कर दी.हालांकि उच्च शिक्षा प्राप्त करने की उनकी तीव्र इच्छा थी, फिर भी वे अपने पिता के निर्णय के विरुद्ध नहीं जा सकीं. लेकिन जब उन्हें उस विवाह में उत्पीड़न और अपमान का सामना करना पड़ा, तो उन्होंने उस रिश्ते को तोड़कर फिर से पढ़ाई शुरू कर दी.1992 में उन्होंने तिरुपति स्थित पद्मावती विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया.पढ़ाई खत्म होने के बाद उन्होंने एक वरिष्ठ जन-हितैषी वकील के मार्गदर्शन में कुछ समय तक वकालत भी की.
हालांकि कॉमरेड रेणुका का जन्म क्रांति के गढ़ कहे जाने वाले वारंगल जिले के ग्रामीण इलाके में हुआ था और उन्होंने बचपन से ही क्रांतिकारी आंदोलनों के बारे में सुना था, लेकिन वे तत्कालीन सीपीआई (एमएल) [पीपुल्स वार] के सीधे संपर्क में 1992 में तिरुपति में आईं. उस समय लोकप्रिय क्रांतिकारी कार्यकर्ता और शहीद कॉमरेड पद्माक्का तिरुपति में संगठनात्मक जिम्मेदारियां संभाल रही थीं. वे उस शहर में छात्रों, महिलाओं और कर्मचारियों को संगठित कर रही थीं, विशेष रूप से एक क्रांतिकारी महिला संगठन का नेतृत्व कर रही थीं. रेणुका से मिलने के तुरंत बाद पद्माक्का ने उन्हें उस संगठन में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया. कॉमरेड रेणुका ने खुशी-खुशी उस जिम्मेदारी को स्वीकार किया और शहरी छात्राओं और मजदूर वर्ग की महिलाओं को संगठित करने के क्रांतिकारी कार्य में जुट गईं.
वह जल्द ही पार्टी की सदस्य और फिर पार्टी सेल की सचिव बन गईं. उन्होंने 1999 तक उस शहर में काम किया.1998 तक पार्टी ने उन्हें क्षेत्रीय स्तर (एरिया कमेटी) की संगठनकर्ता के रूप में मान्यता दे दी थी. साहित्य में उनकी गहरी रुचि, लेखन के प्रति जुनून, गहन अध्ययन की आदत, विश्लेषणात्मक क्षमता और पैनी आलोचनात्मक दृष्टि को देखते हुए कॉमरेड रेणुका को उस महिला संगठन की पत्रिका के एडिटोरियल बोर्ड में शामिल कर लिया गया.
2000 में कॉमरेड रेणुका को पार्टी की ज़रूरतों के मुताबिक तिरुपति से विशाखापट्टनम स्थानांतरित कर दिया गया.वहां भी उन्होंने स्थानीय महिला संगठन में जिम्मेदारियां संभालीं और वहां पहले से कार्यरत साथियों के साथ मिलकर संगठनात्मक कार्यों को आगे बढ़ाया. वे विशाखापट्टनम सिटी कमेटी का हिस्सा बनीं.
जैसे-जैसे उन्होंने अपनी पार्टी जिम्मेदारियों को सक्रिय और रचनात्मक ढंग से निभाया, वर्ग-संघर्ष की राजनीति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता, ईमानदारी, अनुशासन, दूसरों को धैर्यपूर्वक समझाने का उनका लोकतांत्रिक तरीका, मार्क्सवाद का गहन अध्ययन और उनकी गहरी राजनीतिक रुचि को पार्टी ने मान्यता दी. इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए 2003 में पार्टी ने उन्हें जिला-स्तरीय कार्यकर्ता के रूप में पदोन्नत किया.
उनके निजी जीवन की बात करें तो, 1997 में रेणुका ने कॉमरेड एर्रमरेड्डी संतोष (महेश) से विवाह किया, जो उस समय आंध्र प्रदेश राज्य कमेटी के सचिव और केंद्रीय कमेटी सदस्य थे.चूंकि रेणुका खुले तौर पर काम कर रही थीं जबकि संतोष सरकार की कड़ी निगरानी में थे, इसलिए पार्टी ने तय किया कि उनकी शादी गुप्त रखी जाए.हालांकि, 2 दिसंबर 1999 को, एक कोवर्ट के विश्वासघात के कारण श्याम और मुरली के साथ उनकी भी राज्य द्वारा हत्या कर दी गई. उनकी शहादत रेणुका के लिए एक भारी आघात थी, और उन्हें इस दुःख से उबरने में लंबा समय लगा.
2003 में जब रेणुका विशाखापट्टनम में काम कर रही थीं, उनके सहयोगी कमेटी सदस्यों, कॉमरेड कौमुदी और जनार्दन को पुलिस ने गिरफ्तार कर फर्जी मुठभेड़ में मार डाला. लगभग उसी समय आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू पर पीएलजीए द्वारा किया गया एक हमला आंशिक रूप से सफल रहा. इसके तुरंत बाद रायलसीमा और तटीय जिलों में बड़े पैमाने पर तलाशी अभियान चलाया गया. उन क्रांतिकारियों के लिए, जो पहले से ही पुलिस की निगरानी में थे, खुले तौर पर काम करने का दायरा बहुत सीमित हो गया.हालांकि रेणुका का इस हमले से कोई संबंध नहीं था, फिर भी उन्हें भूमिगत होकर एक नए क्षेत्र में जनता के बीच काम करना शुरू करना पड़ा.
अपने भूमिगत क्रांतिकारी जीवन में कॉमरेड रेणुका सबसे पहले आंध्र-ओडिशा बॉर्डर (एओबी) के बांसधारा क्षेत्र में गईं.वहां, वे प्रकृति की गोद में रहने वाले कुई आदिवासियों से जल्द ही घुल-मिल गईं. उन्होंने 2005 के अंत तक बांसधारा डिविजनल कमेटी की सदस्य के रूप में काम किया.हालांकि जंगलों और पहाड़ों का जीवन उनके लिए नया था, और कुई आदिवासियों से उनका पहले कोई संपर्क भी नहीं था, फिर भी उन्होंने अन्य साथियों की मदद से इस क्षेत्र और कुई भाषा को अपनाया. यह महसूस करते हुए कि ओडिशा की राजनीति को समझने और स्थानीय लोगों को समझाने के लिए ओड़िया भाषा सीखना ज़रूरी है, उन्होंने उसे भी सीखने के लिए कड़ी मेहनत की. रेणुका का हमेशा से मानना था कि क्रांतिकारी स्थानीय लोगों की भाषा और रीति-रिवाजों को सीखकर ही उनके साथ एकता कायम कर सकते हैं. वे जहांभी गईं, उन्होंने स्थानीय परंपराओं को समझने और उनमें ढलने के लिए कड़ी मेहनत की.
बांसधारा डिविजन की सदस्य के रूप में काम करते हुए, कॉमरेड रेणुका ने महिला मुद्दों का अध्ययन करने और सिफारिशें देने के लिए गठित महिला सब-कमेटी की सदस्य के रूप में भी काम किया.सब-कमेटीसे अपेक्षा की गई थी कि वह इन पर ध्यान केंद्रित करे: (1) गुरिल्ला जीवन में महिलाओं के सामने आने वाली राजनीतिक, संगठनात्मक और सैन्य चुनौतियां, जिनमें पुरुष सत्ता और भेदभाव के प्रभाव शामिल हैं; (2) पार्टी के भीतर महिला कार्यकर्ताओं और महिला नेताओं के सामने आने वाली समस्याएं, साथ ही उन भूमिकाओं में पुरुष सत्ता के प्रभाव और दबाव; (3) जन संगठनों में महिलाओं के सामने आने वाली संगठनात्मक कठिनाइयां, जो फिर से पितृसत्तात्मक मानसिकता और पुरुष सत्ता से प्रभावित होती हैं; और (4) परिवार, जनजाति, जाति और राज्य सहित व्यापक समाज में श्रमिक वर्ग और उत्पीड़ित महिलाओं द्वारा झेला जाने वाला बहुस्तरीय उत्पीड़न – जो लगातार पुरुष सत्ता और भेदभाव से जुड़ा हुआ है. साथ ही, सब-कमेटीसे अपेक्षा की गई थी कि वह इस वैचारिक समझ को मजबूत करे कि पितृसत्तात्मक समाज ही इन मुद्दों का मूल कारण है. एक सदस्य के रूप में कॉमरेड रेणुका ने गहन प्रतिबद्धता के साथ इन सभी पहलुओं का अध्ययन करने और उनका समाधान करने के लिए अथक प्रयास किया.
जंगल में नई होने, गुरिल्लाओं के बीच रहने और आदिवासियों के जीवन को समझने की प्रारंभिक अवस्था में होने के बावजूद, उन्होंने जिम्मेदारी की गहरी भावना के साथ सभी समस्याओं को समझने का हरसंभव प्रयास किया. वे समाधान खोजने और उनमें आत्मविश्वास जगाने के लिए उनके साथ विचार-विमर्श करतीं. दूसरी ओर, वे इन मुद्दों को पार्टी कमेटियों की चर्चाओं में भी लातीं, सही निर्णय लेने में भाग लेतीं और संघर्ष के उपयुक्त स्वरूपों और संगठनात्मक ढांचों को आकार देने में योगदान देतीं.
कॉमरेड रेणुका ने उन दिनों एओबी ज़ोन से प्रकाशित होने वाली महिला पत्रिका ‘विप्लवी’ के संपादक-मंडल की सदस्य के रूप में भी काम किया. जैसे-जैसे क्रांतिकारी आंदोलन आगे बढ़ा, न केवल महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही थी, बल्कि एक जुझारू महिला आंदोलन भी आकार ले रहा था. इसने महिलाओं के लिए एक समर्पित पत्रिका की आवश्यकता को जन्म दिया – एक ऐसा मंच जो एक संगठनकर्ता के रूप में कार्य करे और पितृसत्तात्मक समाज और पुरुष सत्ता के कारण विभिन्न मोर्चों पर उनके सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में उनकी समझ को बढ़ाने में मदद करे. लेखन में हमेशा गहरी रुचि रखने वाली कॉमरेड रेणुका ने संपादक-मंडल के सदस्य के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने ‘विप्लवी’ को पाठकों के लिए रचनात्मक और आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने के लिए कड़ी मेहनत की. इसके साथ ही, उन्होंने उस क्षेत्र की उन महिला शहीदों के जीवन-वृत्तांतों पर एक पुस्तक प्रकाशित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिन्होंने आंदोलन की शुरुआत से लेकर उस समय तक (1980-2005) अपने प्राणों की आहुति दी थी. यह उनकी ही पहल थी जिसके कारण पुरानी पीढ़ी की एक वरिष्ठ महिला कॉमरेड को, जो क्रांति को ही अपनी सांस मानकर जीती रहीं, पुस्तक की प्रस्तावना लिखने के लिए आमंत्रित किया गया.
पार्टी की राज्य कमेटी ने, कॉमरेड रेणुका की क्षमता, उनकी रुचियों और क्षेत्र में उनके द्वारा पहले से किए जा रहे कार्यों को ध्यान में रखते हुए, यह महसूस किया कि उनकी सेवाओं का अधिक व्यापक, प्रभावी और सार्थक उपयोग करने के लिए उन्हें केंद्रीय कमेटी द्वारा संचालित प्रेस इकाई में स्थानांतरित किया जाना चाहिए. राज्य कमेटी के इस प्रस्ताव पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हुए, सेंट्रल रिजनल ब्यूरो (सीआरबी) ने उन्हें ‘क्रांति’ पत्रिका के संपादक मंडल में शामिल कर लिया.
‘क्रांति’ पार्टी की आंध्र प्रदेश राज्य कमेटी का आधिकारिक राजनीतिक मुखपत्र हुआ करता था और 1980 के दशक में भारतीय क्रांति के लिए एक प्रकाश स्तंभ के रूप में काम करता था.हालांकि, आंदोलन को एक अस्थायी झटका लगने के बाद ‘क्रांति’ की जिम्मेदारी सीआरबी ने संभाली, जो आज तक इसका संचालन कर रही है. कॉमरेड रेणुका 2006 में ‘क्रांति’ के संपादक मंडल का हिस्सा बनीं और 2012 तक इस पद पर रहीं. इस जिम्मेदारी के साथ उन्होंने 2006 की शुरुआत में दंडकारण्य के जंगलों में कदम रखा.
वह क्रांतिकारी आंदोलन के लिए एक बेहद निर्णायक समय था.जहांआंध्र प्रदेश के तीन क्षेत्रों (उत्तरी तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और आंध्र-ओडिशा बॉर्डर) में आंदोलन अस्थायी रूप से बैकफुट पर चला गया था, वहीं दंडकारण्य में फासीवादी ‘सलवा जुडूम’ ने आदिवासी जनता पर श्वेत आतंक फैला रखा था, जिसके बाद ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ भीचलाया गया. सलवा जुडूम ने कई आदिवासी परिवारों को विभाजित कर दिया, उनके जीवन में भारी उथल-पुथल मचा दी और एक बड़े इलाके में पूरे के पूरे गांव कब्रिस्तान में तब्दील कर दिए.
2009 तक, जब सलवा जुडूम जन प्रतिरोध के माध्यम से पराजित हो गया और देश के दमनकारी शासक वर्गों ने ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ के नाम से एक और देशव्यापी दमन अभियान शुरू कर दिया, जिससे हमला और भी तेज हो गया. इस दौरान सैकड़ों प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और क्रांतिकारी जन संगठनों, आदिवासी समूहों, जागरूक व्यक्तियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और वामपंथी ताकतों ने न केवल इस हमले की निंदा की, बल्कि इसे ‘जनता के विरुद्ध युद्ध’ के रूप में भी उजागर किया. और कॉमरेड रेणुका एक प्रतिभाशाली साहित्यिक सिपाही की तरह खड़ी रहीं, जिन्होंने इन परिस्थितियों में भी अपना काम जारी रखा – एक हाथ में बंदूक और दूसरे में कलम थामे.
उन दिनों, दंडकारण्य की जनता पर – विशेष रूप से दक्षिण और पश्चिम बस्तर क्षेत्र में – फासीवादी आतंक का क्षेत्रीय अध्ययन करने के लिए कॉमरेड रेणुका ने कई गांवों का दौरा किया और सैकड़ों पीड़ित परिवारों से मुलाक़ात की, और इसके लिए उन्होंने खुद भी बहुत बड़ा जोखिम उठाया. लोगों के दिलों की गहराइयों से उमड़ती अकथनीय औरभयावह पीड़ाएं उन्हें सुनाई जाती थीं. उन्होंने न केवल गहरी सहानुभूति के साथ उनकी बातें सुनीं, बल्कि अपनी सशक्त लेखनी से उनकी पीड़ा को शब्दों में ढालकर ‘मंडुतुन्ना गायालु’ (जलते ज़ख्म) शीर्षक से एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट तैयार की.
इस अध्ययन ने उन पर व्यक्तिगत रूप से भी गहरा प्रभाव डाला; लोगों द्वारा साझा किए गए दर्दनाक अनुभवों को सुनकर उन्हें गहरा भावनात्मक आघात पहुंचा. वह अपने दर्द को अपनी रचनाओं में व्यक्त करके ही इससे उबर पाईं. बाद के वर्षों में, जब भी वह इन गांवों में लौटीं और परिवारों से मिलीं – जिनमें से कई तब से क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए थे – तो उन्हें हमेशा वे पुराने पल याद आते थे. सलवा जुडूम में मारे गए पहले शहीद, मनकेली गांव के एमला कोवालु के परिवार के साथ उनका गहरा रिश्ता बन गया. जब उनकी पत्नी और बच्चे बाद में आंदोलन में शामिल हुए, तो रेणुका अक्सर उनसे बात करतीं, भावुक होकर उन यादों को ताज़ा करतीं, कभी-कभी तो रो भी पड़तीं थीं.
ऐसे समय में जब क्रांतिकारी आंदोलन एक गंभीर हमले का सामना कर रहा था, कॉमरेड रेणुका को भी एक गहरा व्यक्तिगत नुकसान उठाना पड़ा. मार्च 2010 में उनके जीवनसाथी, कॉमरेड शाखामूरी अप्पाराव को राज्य द्वारा एक और फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया. अत्यंत संवेदनशील स्वभाव की महिला होने के नाते, उन्होंने ऑपरेशन ग्रीन हंट के दौरान जनता और पार्टी – दोनों को हुई कठिनाइयों और नुकसानों को भावनात्मक रूप से स्वीकार किया. स्वाभाविक रूप से अपने साथी के नुकसान को स्वीकार करने में उन्हें काफी समय लगा, लेकिन उन्होंने अपने क्रांतिकारी काम जारी रखे और अपने साथियों के सहयोग से अपने दुःख पर काबू पाने का प्रयास किया.
‘क्रांति’ पत्रिका से जुड़े अपने अंतिम वर्षों में उन्होंने एओबी क्षेत्र में स्थित नारायणपटना के जन आंदोलन का अध्ययन करने का प्रस्ताव रखा. जब उन्होंने यह प्रस्ताव पेश किया, तो पार्टी को भी यह प्रासंगिक और आवश्यक लगा. यह विश्वास रखते हुए कि कॉमरेड रेणुका इसे प्रतिबद्धता और स्पष्टता के साथ पूरा करेंगी, सेंट्रल रिजनल ब्यूरो ने उनकी यात्रा की व्यवस्था की.
1970 के दशक में नक्सलबाड़ी आंदोलन को लगे झटके के बाद 2008-2011 के बीच पश्चिम बंगाल में उठे लालगढ़ आंदोलन ने देश भर में लोगों का ध्यान आकर्षित किया. इस आंदोलन ने क्रांतिकारी व्यवहार में कई नए प्रयोग किए. शुरुआत में विस्थापन-विरोधी संघर्ष के रूप में शुरू हुआ यह आंदोलन कानूनी और सशस्त्र प्रतिरोध के संयोजन के साथ राज्य को चुनौती देने लगा, जिसका उद्देश्य जनसत्ता स्थापित करना था. इसके समानांतर, लगभग इसी अवधि के दौरान ओडिशा के कोरापुट जिले में हजारों आदिवासी जुझारू संघर्षों के जरिए जमींदारों से अपनी जमीनें वापस लेने के लिए उठ खड़े हुए. इस संघर्षने 1970 के दशक के आरंभ में हुए ऐतिहासिक श्रीकाकुलम संघर्ष की याद दिलाई.
इस विद्रोह का अध्ययन करने के लिए, कॉमरेड रेणुका ने जंगलों और पहाड़ों से होते हुए, कई नदियों को पार करते हुए और गुरिल्ला साथियों के साथ सैकड़ों मील पैदल चलकर एक कठिन यात्रा की. लगभग दो महीने के जमीनी कार्य के बाद उन्होंने अपने निष्कर्षों को 2012 में अपने उपनाम बी.डी. दमयंती के तहत ‘विमुक्ति बटालो नारायणपटना’ (मुक्ति के पथ परनारायणपटना) नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया.
‘क्रांति’ के संपादक-मंडल में रहते हुए कॉमरेड रेणुका ने केंद्रीय कमेटी सदस्य और शहीद कॉमरेड कटकम सुदर्शन (आनंदन्ना/दुला दादा) के प्रत्यक्ष नेतृत्व में काम किया और महत्वपूर्ण अनुभव प्राप्त किया. बाद में दंडकारण्य की प्रेस इकाई में प्रभारी के रूप में काम करते हुए, उन्होंने अधिकांश समय एक अन्य शहीद, डीकेएसजेडसी (दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी) के सचिव और केंद्रीय कमेटी सदस्य कॉमरेड रावुला श्रीनिवास (रमन्ना) के मार्गदर्शन में काम किया.
2013 में अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण ‘क्रांति’ पत्रिका को दो साल के लिए निलंबित कर दिया गया. इस दौरान उन्हें ‘प्रभात’ पत्रिका के एडिटोरियल बोर्ड में नियुक्त किया गया.चूंकि‘प्रभात’, दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी की आधिकारिक पत्रिका के रूप में हिंदी में प्रकाशित होता था, इसलिए उन्होंने हिंदी सीखने की चुनौती स्वीकार की. संपादकीय टीम के सहयोग और अपने अथक प्रयासों से वह जल्द ही उस मुकाम पर पहुंच गईं जहांवे सीधे हिंदी में लेख और रिपोर्ट लिखने लगी थीं.
2013 से 2024 के अंत तक कॉमरेड रेणुका मुख्यतः दंडकारण्य की प्रेस इकाई में कार्यरत रहीं. प्रकाशन का प्रबंधन करने के अलावा, उन्होंने कई पार्टी परिपत्रों, दस्तावेज़ों और आंतरिक पत्रों का तेलुगु से हिंदी में अनुवाद भी किया. कोया भाषा में पहले से ही निपुण होने के कारण उन्होंने क्रांतिकारी साहित्य की महत्वपूर्ण पुस्तकों का कोया भाषा में अनुवाद भी किया ताकि उसे स्थानीय कार्यकर्ताओं तक पहुंचाया जा सके.
वे नियमित रूप से जन संघर्षों के अनुभवों, जन-संगठनात्मक कार्यों की चुनौतियों, राज्य दमन की घटनाओं और आदिवासी समाज में घरेलू हिंसा एवं उत्पीड़न के विभिन्न रूपों का अध्ययन करने के लिए क्षेत्रों का दौरा करती थीं. स्थानीय गुरिल्ला साथियों के साथ उनकी कठिनाइयों और चिंताओं को समझने के लिए वे नियमित रूप से उनसे बातचीत करती थीं. इन दौरों के दौरान वे महिला साथियों के साथ भी बातचीत करती थीं ताकि उनके संघर्षों, खासकर पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और पुरुष वर्चस्व में निहित संघर्षों, के बारे में गहरी समझ हासिल कर सकें. कॉमरेड रेणुका एक समर्पित साहित्यिक योद्धा थीं, जिन्होंने अपने क्षेत्रीय अवलोकनों को विश्लेषणात्मक लेखों और रिपोर्टों में रूपांतरित किया और आवश्यकतानुसार उन्हें विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित किया.
कॉमरेड रेणुका ने पूर्व बस्तर डिविजन में श्रमिकों के पलायन के मुद्दे पर एक विशेष अध्ययन किया. दंडकारण्य से देश के विभिन्न हिस्सों में पलायन करने वाले श्रमिकों के मुद्दे पर सेंट्रल रिजनल ब्यूरो द्वारा 2014 में पारित एक प्रस्ताव के बाद उनके अध्ययन को महत्व मिला. शहरों में प्रवासी मजदूरों के रूप में आदिवासियों के सामने आने वाली समस्याओं के बारे में लिखना किसी भी लेखक के लिए एक चुनौती है. उनके कार्यस्थलों की व्यवस्था करने वाले दलालों से लेकर उनके श्रम के शोषण और कार्यस्थलों पर खासकर महिलाओं द्वारा झेली जाने वाली यौन हिंसा तक, वास्तविकता की कल्पना करना भी मुश्किल है जब तक कि पीड़ितों से सीधे तौर पर बात न की जाए. कई मामलों में यह सिर्फ़ नियोक्ताओं का दबाव और धमकी ही नहीं है, बल्कि ऐसे मामले भी हैं जहांयुवा महिलाओं का यौन शोषण उनके साथ काम पर जाने वाले साथी ग्रामीणों द्वारा किया जाता है. कॉमरेड रेणुका ने इन वृत्तांतों को प्रत्यक्ष रूप से सुना और उन्हें ‘पट्टनालकु प्रवाहिस्तुन्ना अड़वी बिड्डाला चेमाटा, नेत्तुरू’(जंगलों से शहरों में प्रवाहित होता आदिवासियों का खून-पसीना – छत्तीसगढ़ के वन क्षेत्रों के प्रवासी श्रमिकों पर एक अध्ययन)नामक पुस्तक में ईमानदारी से दर्ज किया, जो उनके एक और उपनाम ‘गमिता’ से प्रकाशित हुई.
कॉमरेड रेणुका लेखन के साथ-साथ अध्यापन में भी उतनी ही कुशल थीं. अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए, जब भी पार्टी कमेटी उनसे आग्रह करती, वे गुरिल्लाओं और पार्टी कार्यकर्ताओं को राजनीतिक पाठ पढ़ातीं. पार्टी की केंद्रीय समिति द्वारा तैयार किए गए दस्तावेज़ों को पढ़ाने के अलावा, उन्होंने स्थानीय कार्यकर्ताओं के लिए कोया भाषा में मार्क्सवाद की मूल बातों पर अध्ययन कक्षाएं संचालित कीं. साथ ही, मार्क्सवादी सिद्धांत की अपनी समझ को गहरा करने के लिए उन्होंने उच्च कमेटियों द्वारा आयोजित राजनीतिक शिक्षा कक्षाओं में भी भाग लिया.
2011 में दंडकारण्य पार्टी प्लेनम ने समीक्षा की कि आंदोलन एक ‘संकट’ केदौर में प्रवेश कर चुका है. यह आकलन ऑपरेशन ग्रीन हंट के दौरान हुए भारी नुकसान, नेतृत्व के पदों सहित पार्टी छोड़ने वालों की संख्या में वृद्धि और पुलिस के सामने आत्मसमर्पण की बढ़ती संख्या के मद्देनज़र किया गया था. इस प्रतिकूल परिस्थिति में पार्टी ने 2013 में बोल्शेविकीकरण अभियान शुरू किया. इस अभियान के तहत कॉमरेड रेणुका ने ‘सामाजिक अध्ययन एवं विश्लेषण’ कार्यक्रम में सक्रिय रूप से भाग लिया, जो 2013 से 2018 तक विभिन्न रूपों में जारी रहा. नेतृत्वकारी साथियों ने दंडकारण्य के विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हो रही परिस्थितियों पर अध्ययन पत्र तैयार किए और कॉमरेड रेणुका ने उन पत्रों पर आधारित चर्चाओं में भाग लिया. अपने विचारों को स्पष्ट करने और दूसरों के प्रश्नों के उत्तर देने में उनका योगदान हमेशा विचारशील, व्यावहारिक और बौद्धिक रूप से प्रेरक रहा.
इस दौरान प्रेस इकाई में अपना काम जारी रखते हुए कॉमरेड रेणुका ने कई नए साथियों को कंप्यूटर चलाने का प्रशिक्षण भी दिया और उन्हें कुशल टाइपिस्ट और ऑपरेटर के रूप में विकसित किया.2010 तक – और कुछ क्षेत्रों में तो इससे भी पहले – भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन को शहरी और मैदानी इलाकों में झटका लगा था. परिणामस्वरूप, पार्टी की केंद्रीय कमेटी अब दंडकारण्य में बाहर से नए लोगों को भेजने की स्थिति में नहीं थी. इस बीच, चूंकि दंडकारण्य में आंदोलन गैर-किसान तबकों तक नहीं फैला था, इसलिए यह धीरे-धीरे अलग-थलग पड़ गया और केवल आदिवासी समुदायों तक ही सीमित हो गया.हालांकि, इन्हीं तबकों से सैकड़ों नए सदस्य पीएलजीए में शामिल हो रहे थे, इसलिए उन्हें विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियों को संभालने में सक्षम कैडर के रूप में प्रशिक्षित करने की तत्काल आवश्यकता महसूस हुई.
ऐसी कठिन परिस्थितियों में कॉमरेड रेणुका ने कई युवक-युवतियों को कंप्यूटर टाइपिस्ट और ऑपरेटर के रूप में प्रशिक्षित करने का बीड़ा उठाया. उनमें से कई ने आंदोलन में शामिल होने के बाद ही पढ़ना-लिखना सीखा था, फिर भी उनके मार्गदर्शन में वे कुशल टाइपिस्ट बन गए. उन्होंने सैकड़ों पुस्तकों को स्कैन करने और डिजिटल बनाने में भी उनका मार्गदर्शन किया, तथा कई साथियों को प्रिंटिंग और प्रकाशन काम में बहुमूल्य अनुभव प्राप्त करने में मदद की.
कॉमरेड रेणुका (चैते) के शहीद होने की खबर फैलते ही, हर जगह कॉमरेडों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी. उन्होंने और भी दृढ़ता के साथ संघर्ष जारी रखने की शपथ ली और शहीदों के आशयों को पूरा करने का संकल्प लिया.
2020 में आयोजित दंडकारण्य पार्टी प्लेनम में कॉमरेड रेणुका को कुछ और साथियों के साथ सर्वसम्मति से दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी (डीकेएसजेडसी) के लिए चुना गया. प्लेनम द्वारा निर्धारित कार्यों के एक भाग के रूप में डीकेएसजेडसी ने दंडकारण्य क्षेत्र में महिला आंदोलन को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से महिला सब-कमेटी को पुनर्गठित किया. कॉमरेड रेणुका उस सब-कमेटी की सक्रिय सदस्य बनीं और अपनी अंतिम सांस तक उसमें कार्यरत रहीं. उन्होंने शहीद कॉमरेड उप्पुगंटी निर्मला (नर्मदा) की विरासत को बड़े उत्साह के साथ आगे बढ़ाया – नर्मदा ने किसी अन्य की तुलना में इस सब-कमेटी का अधिक समय तक नेतृत्व किया था और सभी रैंकों के कॉमरेडों का प्यार और सम्मान अर्जित किया था.
कॉमरेड नर्मदा प्रेस इकाई के पहले एडिटोरियल बोर्ड की सदस्य भी थीं, जहांवे एक अन्य शहीद, कॉमरेड आलूरी भुजंगा राव (पेद्दन्ना) के साथ काम करती थीं. कुछ समय तक उन्होंने डीके प्रेस इकाई का नेतृत्व किया और ‘नित्या’ उपनाम से क्रांतिकारी साहित्य में योगदान दिया. अपनी विनम्रता और मधुर संबंधों के लिए जानी जाने वाली कॉमरेड रेणुका का नर्मदा के साथ-साथ उनके जीवनसाथी कॉमरेड रानी सत्यनारायण (किरण अन्ना) के साथ भी गहरा नाता था, जो पहले डीके प्रेस की प्रभारी थे और बाद में एक फर्जी मामले में फंसकर कई साल मुंबई की तलोजा जेल में कैद रहे.
क्रांतिकारी व्यवहार के संदर्भ में रेणुका और नर्मदा में कई समानताएं थीं और एक-दूसरे के प्रति उनके मन में गहरा सम्मान था. उनकी व्यक्तिगत और सामूहिक क्रांतिकारी यात्राओं में उनकी सौहार्दपूर्णता और साझा प्रतिबद्धता कई रूपों में परिलक्षित होती थी.
चूंकि सब-कमेटी के अधिकांश सदस्य स्थानीय आदिवासी पृष्ठभूमि से थे, इसलिए कॉमरेड रेणुका ने एजेंडा तैयार करने, बैठकों के दौरान सभी बिंदुओं पर निर्णायक चर्चा करने, सामूहिक अध्ययन के लिए मार्क्सवादी शिक्षकों के उपयुक्त लेखों का चयन करने, मिनिट्स तैयार करने, प्रस्तावों का मसौदा तैयार करने आदि में सक्रिय भूमिका निभाई. वह दंडकारण्य में महिला आंदोलन को मजबूत करने के लिए सब-कमेटी के सदस्यों के लिए उपयुक्त अध्ययन सामग्री का चयन और सिफारिश भी करती थीं.
महिला सब-कमेटी की सदस्य बनने के बाद क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन के आधिकारिक मुखपत्र, ‘संघर्षरत महिला’, का नियमित प्रकाशन सुनिश्चित करने के लिए उन्हें और भी कड़ी मेहनत करनी पड़ी. इसके अलावा, जब यह तय हुआ कि इस पत्रिका को कोया भाषा में भी ‘लड़ेमायना महिला’ नाम से प्रकाशित किया जाए, तो कॉमरेड रेणुका ने एक बार फिर उस निर्णय को लागू करने में अहम भूमिका निभाई. वह एक ऐसी कॉमरेड थीं जो किसी भी क्षेत्र में जिम्मेदारी मिलने पर उसके साथ पूरा न्याय करती थीं.
उनकी मृत्यु से दंडकारण्य के महिला आंदोलन ने एक विश्वसनीय, भरोसेमंद और प्रिय नेता खो दिया है. उनकी खामी की भरपाई केवल उनके द्वारा सिखाए गए पाठों के आलोक में, उनके आदर्शों और आशयों पर चलते हुए ऑपरेशन कगार जैसे दमनकारी हमलों, और शायद उससे भी अधिक गंभीर हमलों के बीच भी निरंतर आगे बढ़ते रहने से ही हो सकती है.
आइए, संक्षेप में कॉमरेड रेणुका के स्वास्थ्य पर भी चर्चा करें. निस्संदेह, उनके बचपन के जीवन और जंगलों में गुरिल्ला जीवन के दौरान उनके सामने आई परिस्थितियों में गहरा अंतर था. बांसधारा क्षेत्र में रहते हुए – 2006 के बाद से दंडकारण्य में – वे अक्सर मलेरिया से पीड़ित रहती थीं.कई बार फाल्सीपेरम मलेरिया के दौरे भी पड़ते थे. लक्षण बहुत गंभीर होते थे. कभी-कभी उन्हें इतना तेज़ सिरदर्द होता था कि ऐसा लगता था जैसे उनकी नसें फट रही हों. उन्हें क्रोनिक स्पॉन्डिलाइटिस भी था.
फिर भी, इन सबके बावजूद कंधे पर 30-कारबाइन लटकाए और ऑलिव-ग्रीन रंग की वर्दी पहने, वह अपने गुरिल्ला साथियों के साथ आगे बढ़ती रहीं. जब भी कोई इस दुबली-पतली महिला को पहाड़ियों पर चढ़ते-उतरते देखता, तो लेनिन के ये शब्द याद आते: ‘यह विश्वास कि हमने जो रास्ता चुना है वह सही है, क्रांतिकारी भावना और उत्साह को सौ गुना बढ़ा देता है ताकि चमत्कार पैदा कर सके.’
1996 में क्रांतिकारी जीवन का रास्ता अपनाने के बाद कॉमरेड रेणुका ने 1999 से 2014 के बीच कई गहरे व्यक्तिगत सदमे झेले, जिससे वे मानसिक रूप से हिल गईं. फिर भी, अटूट संकल्प और अपने साथियों के सहयोग से वे डटी रहीं. खराब स्वास्थ्य के कारण गंभीर शारीरिक चुनौतियों के बावजूद उनके क्रांतिकारी सफ़र का अंतिम दशक निस्संदेह उनकी सबसे उल्लेखनीय था – जो अथक प्रतिबद्धता और असीम उत्साह से भरा हुआ था.
कॉमरेड रेणुका की कहानियां2023 में विरसम मित्रों द्वारा प्रकाशित एक संकलन ‘वियुक्का’ में प्रकाशित हुईं. जैसे ही क्रांतिकारी लेखक संघ ने इस संकलन की घोषणा की, कॉमरेड रेणुका दंडकारण्य की उन महिला लेखिकाओं में शामिल थीं जिन्होंने इस आह्वान का स्वागत किया. कहानियों की सूची की सावधानीपूर्वक समीक्षा करने के बाद उन्होंने संपादकों को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने बताया कि कौन सी कहानियां उनकी हैं और कौन सी नहीं, जो गलती से वे उनके नाम से प्रकाशित हुई थीं. उन्होंने कुछ कहानियों के असली लेखकों की भी पहचान की जिन्हें वे जानती थीं. दुर्भाग्यवश, यह उनका आखिरी पत्र साबित हुआ, जो ‘वियुक्का’ के संपादकों तक पहुंचाने के इरादे से लिखा गया था.
डीकेएसजेडसी के अपने युवा साथी, कॉमरेड रूपेश के शहीद होने पर कॉमरेड रेणुका ने दुःख व्यक्त करते हुए लिखा था:
‘दुश्मन के कई हमलों में हमें भारी नुकसान हुआ है. लेकिन अब तक वह केंद्रीय समिति और राज्य जोनल कमेटी नेतृत्व को निशाना बनाने में सफल नहीं हुआ था. इस बार दुश्मन ने यह कर दिखाया है. गढ़चिरौली आंदोलन की वर्तमान स्थिति में कॉमरेड रूपेश की शहादत केवल उस क्षेत्र की ही नहीं, बल्कि पूरे दंडकारण्य आंदोलन की क्षति है. यह दुखद है कि हमने एक ऐसे कॉमरेड को खो दिया, जिसके पास न केवल सैन्य क्षमता थी, बल्कि क्रांतिकारी मूल्यों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता भी थी. वह सबसे विश्वसनीय युवा नेताओं में से एक थे – सिद्धांतवादी, दृढ़निश्चयी और महान आदर्शों वाले व्यक्ति. उनके जैसे स्थानीय कॉमरेड का जाना कार्यकर्ताओं और जनता – दोनों को गहराई से प्रभावित करेगा. वह ऐसे व्यक्ति थे जो जहांभी जरूरत हो, वहां जाकर कोई भी क्रांतिकारी काम कर सकते थे. उनकी खामी हमारे आगे के रणनीतिक निर्णयों पर भारी पड़ेगी.चूंकि मैं उनके साथ शहीद हुए अन्य लोगों के बारे में ज्यादा नहीं जानती, इसलिए मैं अभी यह नहीं कह सकती कि उनके जाने का हम पर क्या प्रभाव पड़ेगा.’
सिलसिलेवार ‘कगार’ हमलों के बीच भी कॉमरेड रेणुका ने अटूट समर्पण के साथ अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना जारी रखा. जब 16 अप्रैल, 2024 को उत्तर बस्तर के अपाटोला-कलपर में एक गुरिल्ला टुकड़ी पर पुलिस ने एक क्रूर हमले में 29 साथियों को मार डाला, तो रेणुका पास ही थींजहांवह किसी अन्य काम में व्यस्त थीं. इस नरसंहार ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया था – न केवल वह कई शहीदों को व्यक्तिगत रूप से जानती थीं, बल्कि कुछ दिन पहले ही उन्होंने उनके साथ समय भी बिताया था. पुलिस ने कुछ निहत्थे साथियों को जिंदा पकड़ लिया, उन्हें अपने साथी लड़ाकों के शवों को उस जगह तक ले जाने के लिए मजबूर किया जहां उनके वाहन खड़े किए गए थे, और फिर उन्हें मार डाला. कॉमरेड रेणुका इस क्रूरता से स्तब्ध थीं और उन्होंने इस नरसंहार की कड़ी निंदा की. उन्होंने बाहरी दुनिया को इसके बारे में विस्तार से बताने के लिए अथक प्रयास किया.
14 जून, 2024 को फिर से पुलिस ने माड़ क्षेत्र के कोडतामर्का गांव के पास एक गुरिल्ला टुकड़ी पर हमला किया. पास ही मौजूद कॉमरेड रेणुका बाल-बाल बच गईं. जनवरी से दिसंबर 2024 तक एक साल तक चले ‘कगार’ सैन्य अभियान के दौरान उन्होंने हर शहीद का विवरण बड़ी मेहनत से दर्ज किया और उसे इलाके से बाहर भेज दिया. अगस्त 2024 तक उन्होंने यह सब एक किताब में संकलित कर लिया – जो उनके नेतृत्व और संपादकीय प्रतिबद्धता का एक अमिट प्रमाण है जो दंडकारण्य के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए अंकित रहेगा.
उस दौरान ‘कगार’हमलों के बीच उनकी यूनिट को जिस स्थिति का सामना करना पड़ रहा था, उसके बारे में उन्होंने जो लिखा वह इस प्रकार है:
‘हमारे कुछ सदस्य मलेरिया से बार-बार बीमार पड़ रहे हैं. लेकिन हमारे पास क्लोरोक्वीन की गोलियां भी नहीं हैं. मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं. अगर हो सके तो कृपया हमें कुछ सामान्य दवाइयां भेज दीजिए. मेरी अपनी दवाइयां, जो मुझे नियमित रूप से लेनी चाहिए, उत्तर बस्तर में रहते हुए खत्म हो गईं. लौटने से पहले मैंने वहां के साथियों को लिखा था, और यहांपहुंचने के बाद भी मैंने एक और साथी को फिर से लिखा – लेकिन दोनों तरफ से दवाइयां नहीं आईं. मौजूदा हालात में बार-बार दवा माँगना ऐसा लगता है जैसे मैं उनकी हालत की गंभीरता को समझ नहीं पा रही हूं, है ना?’
‘कगार’ सैन्य हमलों ने न केवल क्रांतिकारियों के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया, बल्कि आम लोगों के जीवन को भी तबाह कर दिया. इस देश के शासक हमारे जंगल चाहते हैं. वे चाहते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाए. वे 2047 तक एक ‘विकसित भारत’ चाहते हैं और भारत को विदेशी पूंजी का अड्डा बनाना चाहते हैं.
यह सब हासिल करने के लिए उन्हें जंगलों में छिपी विशाल प्राकृतिक संपदा को लूटना चाहते हैं, खासकर उन इलाकों में जहांमाओवादी क्रांतिकारी आंदोलन मजबूत है. ऐसा करने के लिए वे माओवाद का सफाया चाहते हैं. वे नहीं चाहते हैं कि जंगलों में माओवादियों हों. शहरी माओवादी, जो उनकी नज़र में और भी ज्यादा खतरनाक हैं, उनका भी सफाया करना चाहते हैं. राज्य की नज़र में, जो कोई भी सवाल उठाता है, वह माओवादी है. किसी को भी बख्शा नहीं जाना चाहिए.
यह वही राज्य है जिसने 31 मार्च, 2025 को कॉमरेड रेणुका की बेहद क्रूरता से हत्या कर दी. फिर भी, कोई भी ‘कगार’ कभी इतना शक्तिशाली नहीं होगा कि लाल झंडों के लहराते सागर के बीच, कड़वेंडी में गूंजते नारों को दबा सके. वे नारे निश्चित रूप से एक भौतिक शक्ति में बदल जाएंगे.
यह नरसंहार कॉमरेड रेणुका की हत्या के साथ समाप्त नहीं हुआ. उनकी शहादत भारत के महान क्रांतिकारी आंदोलन में न तो पहली है, और न ही, हमारी गहरी आशाओं के बावजूद यह आखिरी होगी. रेणुका भारतीय जनता की जनवादी क्रांति के पथ पर कभी न बुझने वाली ज्वाला बनी हुई हैं. अस्वस्थता के बावजूद वह अपनी कमेटी की एक अन्य कॉमरेड के साथ मिलकर, ‘शांति’ वार्ता के लिए प्रयास कर रही थीं, ताकि शासक वर्गों द्वारा किए जा रहे नरसंहारों को कुछ समय के लिए टाला जा सके. इसी दौरान में उनकी हत्या कर दी गई.
जिस तरह कांग्रेस शासन के दौरान स्वामी अग्निवेश की मध्यस्थता में शांति वार्ता के प्रस्तावों केबीच पार्टी प्रवक्ता कॉमरेड चेरुकुरी राजकुमार की हत्या कर दी गई थी, उसी तरह अब भगवाधारी फासीवादियों ने कॉमरेड रेणुका को भी ऐसे ही फर्जी मुठभेड़ में मार दिया है. उनका बलिदान एक बार फिर शासक वर्ग द्वारा प्रचारित शांति और अहिंसा के खोखले दावों का पर्दाफाश करता है. उन्हें उनके आश्रय से घसीटकर इंद्रावती नदी के तट पर निर्ममतापूर्वक गोली मार दी गई.
उनकी हत्या फासीवादी हिंदुत्व शासन के बर्बर चरित्र को उजागर करती है. यह उन सच्चाइयों की पुष्टि करती है जिन्हें कॉमरेड रेणुका ने अपने लेखन में लगातार उठाया था, और देश के सामने इन ताकतों से उत्पन्न गंभीर खतरे को उजागर करती है. कॉमरेड रेणुका को सच्ची श्रद्धांजलि उनके आदर्शों को आगे बढ़ाने और उनके गहरे लक्ष्यों को साकार करने में निहित है. चाहे कितने भी ‘कगार’ अभियान हों या मिसाइलें, उनके क्रांतिकारी विचारों की ज्वाला को कभी नहीं बुझा सकतीं.
कॉमरेड रेणुका की शहादत निस्संदेह क्रांतिकारी आंदोलन के लिए एक अपूरणीय क्षति है. खासकर ऐसे समय में जब क्रांतिकारी पार्टी ने वर्षों के व्यवहार के दौरान हुई गंभीर गलतियों को पहचान कर लिया है और उन्हें सुधारने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, उनका न होना एक दर्दनाक खालीपन छोड़ गई है. पार्टी पोलिट ब्यूरो के परिपत्र पर विचार रखते हुए उन्होंने एक तीखी टिप्पणी की थी: ‘हमने ये फैसले बहुत देर से लिए – तब, जब काफी नुकसान हो चुका है. अगर ये फैसले पहले लिए गए होते, तो वाकई बहुत फर्क पड़ता.’ इसके साथ ही, उन्होंने पार्टी के उच्च नेतृत्व के साथ कई आलोचनात्मक विचार साझा किए, जिन्होंने माना कि उनके विचार विचारशील, जरूरी और अमल के लायक हैं. अब, क्रांतिकारी आंदोलन की जिम्मेदारी है कि वह कॉमरेड रेणुका के बिना ही इस सुधार प्रक्रिया को आगे बढ़ाए – एक ऐसी कॉमरेड जो अपने अटूट संकल्प और असाधारण क्षमताओं के लिए जानी जाती थीं. आइए, हम आगे बढ़ें और उनके द्वारा छोड़े गए काम को जारी रखें.
कॉमरेड रेणुका की रचनाओं में जीवंत अनुभव और क्रांति के महानलक्ष्य प्रतिबिंबित होते हैं. वे केवल शब्द नहीं हैं – वे एक आह्वान है, जो उसी दृढ़ विश्वास के साथ लिखे गए हैं जिसे वह हर युद्धभूमि में एक हाथ में बंदूक और दूसरे में कलम लेकर जाती थीं. उनकी शहादत क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में एक उज्ज्वल अध्याय है – जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा. वर्षों की प्रतिबद्धता से उन्होंने जो बौद्धिक शक्ति और स्पष्टता विकसित की, उसने संघर्ष को गहन और स्थायी रूप से समृद्ध किया. वह केवल क्रांति की स्वप्नद्रष्टा नहीं थीं – वह एक योद्धा थीं जिन्होंने उस स्वप्न को साकार करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया. उन्हें एक नई सुबह के आगाज़ के रूप में याद किया जाएगा.
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